नई दिल्ली: हम मनुष्य हैं। हम एक मानव समाज में रहते हैं। हमें चेतना और विचार और बुद्धि का धन दिया गया है। अच्छे और बुरे में फर्क करने की क्षमता दी गई है। इसके अतिरिक्त, हममें से कुछ लोगों को कुछ अधिक नेमतों से नवाज़ा गया है। किसी को ढेर सारा धन दिया है, किसी को ज्ञान के मोतियों से नहलाया गया है।
यह सच है कि इन नेमतों को प्राप्त करने में किसी का व्यक्तिगत प्रयास भी शामिल होता है लेकिन क्या हम में से कोई यह दावा कर सकता है कि आज जो जहां है उसे बनाने और वहां पहुंचाने में कुछ अन्य लोगों का भी हाथ नहीं है? क्या मां के गर्भ से बाहर आते ही हमने पढ़ना-लिखना शुरू कर दिया था? बचपन का जो दौर हमारे जन्म से लेकर स्कूल जाने की उम्र तक का था, हम कितने मजबूर थे, खुद से कोई काम भी नहीं कर पाते थे, खाने-पीने से लेकर साफ-सफाई तक, हम दूसरों के भरोसे थे। अगर हमारे माता, पिता, भाई, बहन और परिवार के अन्य सदस्यों ने हमारी मदद नहीं की होती, तो क्या हम आज जहां हैं, वहां होते? क्या हमें इसका एहसास है कि हमने स्कूल जाने से लेकर अपने पैरों पर खड़े होने तक कितनी बैसाखियों के सहारे अपना सफर पूरा किया है?
पिता की गाढ़ी कमाई के अलावा भी कई लोग हैं जो हमारी जिंदगी को सहज बनाने में लगे रहे हैं। हमारे शिक्षक जिन्होंने हमें पढ़ाया, हमारे स्कूल के चपरासी और सफाईकर्मी जिन्होंने हमारी सेवा की, सवारी और उनके चालक जो हमें सुरक्षित रूप से स्कूल लाए और ले गए। इसके अलावा भी दर्जनों लोग हैं जो हमारे जीवन का हिस्सा हैं क्या हम उन सभी को भूल गए हैं? क्या हम यह कह कर आगे बढ़ें कि इनमें से प्रत्येक ने अपना कर्तव्य निभाया है। यदि ऐसा है, तो क्या हमें उस अधिकारों का ज्ञान और बोध है जो इस कर्तव्य के बदले हमे अदा करने चाहिए? क्या हम यह कह कर दिल को तसल्ली दें लें कि माता-पिता के अलावा अन्य लोगों ने पैसे के लिए यह सेवा की है?
सिर्फ उन लोगों की सूची बनाइये जिन्होंने आप की सेवा पैसा लेकर बस दो चार ही ही नाम मिलेंगे। जबकि उन लोगों की एक लंबी सूची है जिन्होंने हम से निस्वार्थ प्रेम किया है। जिन्होंने हमें सफल होने के लिए प्रोत्साहित किया। अगर उन्होंने हमें प्रोत्साहित नहीं किया होता तो शायद हमारी सफलता रुक जाती। सैकड़ों नहीं तो दर्जनों लोग थे जिन्होंने हमारी जीत की खुशी मनाई।
जब हमने पहली बार चलना शुरू किया तो हम लड़खड़ा गए और कई हाथ हमें थामने के लिए बढ़ गए। कितनी आँखों में हमारे पांव चलने का ख़ुशी थी शायद इस का हम अंदाज़ा भी नहीं करसकते। बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो हमारे दुखी होने पर दुखी हुए थे कुछ ऐसे थे जो नहीं चाहते थे कि हमारे पैरों में कांटा भी चुभे। कितने लोग हमारे बीमार होने पर रात भर नहीं सोए, इस सूची में हमारे सगे संबंधी और हमारे दोस्त भी शामिल थे।
आप कुछ ऐसे लोगों की शिकायत कर सकते हैं जिन्होंने आपकी सफलता को असफलता में बदलने की कोशिश की है।लेकिन ऐसे लोग आपकी जिंदगी में दो चार से ज्यादा नहीं होते। क्या हम इन ईर्ष्यालु या बुरा चाहने वालों के कारण अपने हजारों विश्वासपात्रों और सैकड़ों दयालु लोगों के अधिकारों को भूल सकते हैं? समाज की ये निस्वार्थ सेवाएं हम पर क़र्ज़ हैं और हम में से प्रत्येक को यह मूल्यांकन करना होगा कि हमने समाज का कितना कर्ज चुकाया है। हाफ़ीज़ मेरठी के अनुसार: यह भी तो सोचिए कभी तन्हाई में ज़रा। दुनया से हम ने किया लिया दुनया को किया दिया।
मैं देखता हूं कि हर किसी को इस बात का दुःख है कि उस के पास जीवन के साधन कम हैं। किसी को संतान न होने का दुःख होता है तो किसी को संतान होने का कियोंकि उस की संतान उस का कहना नहीं मानती। किसी के पास इतनी दौलत है कि हर समय ईडी का खतरा बना रहता है तो कोई दूसरों की दौलत देखकर दुखी होता है। एक मंत्री अपने पोर्टफोलियो से संतुष्ट नहीं है, एक शिक्षक अपनी सुविधाओं से संतुष्ट नहीं है, एक डॉक्टर अपने कमीशन से, एक इंजीनियर अपने मौजूदा संसाधनों से,और तो और मस्जिद के इमाम और मौलवी, मंदिरों और आश्रमों के पंडित और पुजारी अपने भक्तों से खुश नहीं हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम सभी अपने लिए जी रहे हैं।वे हर समय अपनी परेशानियों का रोना रोते हैं। केवल अपने आराम की चिंता रहती है। अपने से ऊपर नज़र उठा कर मालदारों को देखते हैं, तो दुख अधिक बढ़ जाता है।
हर कोई मुसलमानों के पिछड़ेपन का शोक मना रहा है। इस पिछड़ेपन के लिए हर कोई अपने सिवा हर दूसरों पर उंगली उठा रहा है वह नहीं देखता की पांच में से चार उंगली उसी की ओर इशारा कर रही हैं। मस्जिद के इमाम हर शुक्रवार को खरीखोटी सुनाकर संतुस्ट हो जाते हैं।
राष्ट्रीय, धार्मिक और सामाजिक संगठन गोष्ठी और संगोष्ठी करते हैं, लेखक और पत्रकार वास्तविक तथ्यों को पृष्ठ पर स्थानान्तरित करते हैं और आईना दिखाते हैं।सरकारी एजेंसियां हर साल आंकड़े पेश कर मुस्लिम समाज को अपमानित करती हैं। परन्तु इन सबका परिणाम क्या है? हम तो प्रतिदिन पिछड़ेपन की ओर बढ़ रहे हैं। जब कि चंदे पर निर्भर संस्थाओं का चंदा और सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ रहा है। गली गली नेता पैदा हो रहे हैं। जिसका अनुमान प्रत्येक चुनाव के समय लगाया जासकता है। जब किसी पद के लिए पांच या छह लोग नॉमिनेशन कराते हैं। इन सब के बावजूद भारत में मुसलमानों की स्थिति दयनीय है।इसका मुख्य कारण यह है कि हम दर्द पर कमेंट करते हैं, मरहम नहीं लगाते। हममें से जो लोग सभ्य समाज से ताल्लुक रखते हैं उनके सामाजिक उत्तरदायित्व अधिक होते हैं।इस सूची में शिक्षक, डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, विद्वान, लेखक, पत्रकार, व्यवसायी, आदि शामिल हैं।
हमारे बीच शिक्षकों की सबसे बड़ी संख्या है। वे अज्ञानता के नुकसान के बारे में जानते हैं। उनके पास समय की कमी नहीं है। निजी शिक्षकों की तुलना में सरकारी शिक्षकों को उचित वेतन मिलता है। अगर ये लोग अपने आस-पड़ोस से अशिक्षा को दूर करना चाहते हैं, तो उन्हें कौन रोक सकता है, कमजोर बच्चों का मार्गदर्शन करने, स्कूल छोड़ने वाले बच्चों का स्कूल में दाखिला कराने, उन्हें सरकारी स्कॉलरशिप दिलवाने में क्या बाधा हो सकती है। मगर अफ़सोस उनके द्वारा ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाता जिससे क़ौम के पिछड़ेपन को दूर करने में मदद मिले। इसी प्रकार मस्जिदों के इमाम और मदरसों के शिक्षक हैं। एक इमाम अपने अनुयायियों की अज्ञानता को दूर करने की कोशिश नहीं करता है, मदरसों के पास अपने आस पास की निरक्षरता को साक्षरता में बदलने की कोई योजना नहीं है।
डॉक्टरों का समाज सम्मान करता है। वे ग़म के मारों का इलाज करते हैं। उनके पास समय और संसाधनों की कोई कमी नहीं है। वे लोगों को स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रति जागृत कर सकते हैं। वे चाहें तो दस-बीस लोगों को आर्थिक सहयोग या तकनीकी मार्गदर्शन देकर समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। आज चिकित्सा के क्षेत्र में भारी भ्रष्टाचार है, अनावश्यक जांच के नाम पर पैसा कमाया जा रहा है। नकली दवाई देकर मरीजों की जान से खिलवाड़ किया जा रहा है। यदि हमारे डॉक्टर क़ौम के पिछड़ेपन पर टिप्पणी करने के बजाय खुद को और लोगों को भ्रष्टाचार से बचाएं तो सामाजिक ऋण चुकाया जा सकता है।
रोगी के प्रति दया और सद्भावना,कम खर्च में इलाज,मीठे दो बोल रोगियों की हिम्मत बढ़ाते हैं। यदि यह प्रक्रिया (अमल) बिना किसी भेदभाव के की जाए तो देशवासियों पर नैतिक श्रेष्ठता भी सिद्ध की जासकती है।
इसी तरह सभ्य समाज के और भी लोग अपनी जिम्मेदारी अदा करसकते हैं, वकील आर्थिक स्थिति से कमजोर बेगुनाहों के दस फीसदी मुकदमे मुफ़्त लड़ सकते हैं, आरटीआई का प्रयोग कर सरकारी तंत्र से काम ले सकते हैं, सरकारी योजनाओं से परिचित होकर जनता को लाभान्वित कर सकते हैं।
पत्रकार अगर अपना क़लम न बेचें तो सरकार और जनता के बीच की समस्याओं को सुलझाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं। जमाखोरी, मुनाफाखोरी, कम तोलने और कम नापने से परहेज कर व्यवसायी समाज पर बहुत बड़ा उपकार कर सकते हैं। लेकिन अफसोस! सेवानिवृत्त और पेंशनभोगियों के पास भी समाज के लिए समय नहीं है। वे भी मरते दम तक दो पैसे और कमाने के चक्कर में हैं। मेरी इच्छा है कि समाज ने हमें बनाने में जो योगदान दिया है और हमारी तरक़्क़ी व खुशाली में जो भूमिका निभाई है हम उस क़र्ज़ को अदा करे बग़ैर दुनिया से न जाएँ।
[नोट: उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एमसीएफ न्यूज़ इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]