क्या हम चुनाव से कोई सबक सीखते हैं? हर चुनाव हमारे लिए एक परीक्षा है जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं: अब्दुल ग़फ़्फ़ार सिद्दीक़ी

0
324
क्या हम चुनाव से कोई सबक सीखते हैं?
क्या हम चुनाव से कोई सबक सीखते हैं?

नई दिल्ली: कर्नाटक राज्य और उत्तर प्रदेश स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। हालांकि दोनों जगहों के नतीजे अलग-अलग हैं, लेकिन एग्जिट पोल के मुताबिक हैं। कर्नाटक में कांग्रेस की भारी जीत हुई है। वहां बीजेपी की हार से दक्षिण भारत में उस का सफाया हो गया। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत विपक्षी दलों के लिए उत्साहजनक है।

कुछ लोगों का मानना है कि बीजेपी जानबूझ कर हारी है ताकि ईवीएम पर उठे सवालों को बंद किया जा सके और 2024 के संसदीय चुनाव में कुछ किया जा सके। कर्नाटक वह राज्य है जहां भाजपा और हिंदू वादी शक्तियों ने पिछले कई वर्षों से इस्लाम और मुसलमानों पर अपने सभी तीर चलाए हैं।

हिजाब विवाद इसी राज्य से जुड़ा है। यह मामला इतना लंबा खिंच गया कि सड़क से सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया। “बेटी पढ़ाओ” और “बेटी बचाओ” के नारे लगाने वालों ने हिजाब पहनने वाली छात्राओं के लिए शिक्षण संस्थानों के दरवाजे बंद कर दिए।

मेरी समझ में नहीं आता कि यह कौन सी ‘सभ्यता’ है जो नग्नता को बढ़ावा देती है और हिजाब का विरोध करती है। यही वो राज्य है जहां से चार फीसदी मुस्लिम आरक्षण खत्म कर दिया गया। इस मामले की भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।

ये कैसा ‘मुस्लिम प्रेम’ है कि एक तरफ मुसलमान पसमांदा मोर्चा बनाकर मुसलमानों के विकास और समृद्धि और उन्हें मुख्य धारा में लाने की बात करते हैं और दूसरी तरफ चार प्रतिशत आरक्षण भी बर्दाश्त नहीं करते।

शहीदे वतन टीपू सुल्तान का मामला भी कर्नाटक से जुड़ा है। स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों का साथ देने वाले टीपू सुल्तान की वफादारी पर सवाल उठा रहे हैं? देश की सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले व्यक्ति का अपमान किया जा रहा है। हराम खाने वालों की ओर से हलाल फ़ूड का विरोध भी इसी राज्य में हुआ।

द केरला स्टोरी फिल्म इसी मौके पर रिलीज की गई। नारा ए तकबीर बोलने पर प्राथमिकी दर्ज कराने वालों की ओर से जय बजरंग बलि का नारा लगाकर मतदान करने की अपील की गई। यानि मुसलमानों का खुलकर विरोध हुआ। साफ़ साफ़ कहा गया कि हमें मुसलमानों के वोट की जरूरत नहीं है। एक सौ चालीस करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री ने हमेशा की तरह अपनी सारी गरिमा को ताक पर रखकर संघ के प्रचारक के रूप में चुनाव प्रचार में भाग लिया। अब तक के चुनाव प्रचार और कर्नाटक के अभियान में यह अंतर उल्लेखनीय था कि पहले संप्रदायवाद, मुस्लिम विरोध और धार्मिक अतिवाद पृष्ठभूमि में रहते थे लेकिन इस बार वो खुद सीन का हिस्सा था।

सांप्रदायिकता ने कर्नाटक में जो नंगा नाच किया है और मुस्लिम शत्रुता जिस प्रकार प्रदर्शित की गई है उस के आगे कुछ भी नहीं बचा है सिवाय इसके कि मुसलमानों का सीधे सीधे नरसंहार किया जाना चाहिए। इन सबके बावजूद, संप्रदायवादियों की करारी हार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश को अब भी बचाया जा सकता है। कर्नाटक की जीत आशा की एक उज्ज्वल किरण है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कांग्रेस इस जीत से कुछ सीख लेगी। क्या वह अपने आंतरिक मतभेदों को दूर कर पाएगी? क्या वह अपने वादे पर खरी उतरेगी? या हर बार की तरह इस बार भी बेवफा हो जाएगी।

कर्नाटक में चार फीसदी आरक्षण खत्म करने को लेकर हंगामा करने वाली कांग्रेस अपने अन्य राज्यों में इस आरक्षण को लागू क्यों नहीं करती? राजस्थान के चार मुस्लिम युवक जिन्हें आतंकवाद के झूठे मामलों में फंसाया गया था और एक निचली अदालत द्वारा दोषी पाया गया था, उन्हें उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया था। इस फैसले के खिलाफ मुस्लिम युवकों को सजा दिलाने के लिए अशोक गहलोत ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा क्यों खटखटाया?

क्या कांग्रेस खाकी नेकर वालों को अपने संगठन से बाहर कर देगी? या फिर ये कहकर मुसलमानों को इग्नोर कर देगी कि हमने बीजेपी के अत्याचार से मुसलमानों को बचाया है। मुझे कांग्रेस के वादे पूरा करने पर शक है। कर्नाटक के मुसलमानों का अभियान और परीक्षा अभी खत्म नहीं हुई है। अब उन्हें यह सुनिश्चित करना है कि कांग्रेस अपने वादों को पूरा करे।

इस साल कई राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। हो सकता है कि कांग्रेस मुसलमानों को खुश करने और मुंह भराई के आरोपों से बचने के लिए अपने वादों को पूरा करने में टाल मटोल करे। इसलिए जितनी जल्दी हो सके जो खोया है उस को पाने की कोशिश करें।

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत केवल राहुल गांधी की भारत जोड़ यात्रा की वजह से नहीं हुई है अगर ऐसा होता तो जालंधर के लोकसभा चुनाव और यूपी के स्थानीय निकाय चुनाव में करारी हार नहीं होती। जालंधर की सीट उनके पास बीते बीस साल से थी। कर्नाटक की विजय में मुसलमानों के शऊर और धर्मनिरपेक्ष लोगों की एकता की अहम भूमिका है।

उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजे उम्मीद के मुताबिक रहे हैं। नगर निगम की सभी 17 सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की है, नगर पालिका की 199 सीटों में से 98 और नगर पंचायत की 544 सीटों में से 204 सीटें बीजेपी के खाते में गई हैं। राज्य सरकार का पूरा जोर नगर निगम पर था, खुद मुख्यमंत्री ने काफ़ी मेहनत की, जिसका उन्हें फायदा हुआ। पिछले चुनाव में भी दो सीटों को छोड़कर बाकी सीटों पर उनका कब्जा था। वैसे तो ये वो शहर हैं, जहां मुस्लिमों की तादाद ज्यादा है, लेकिन मुस्लिम वोटों के बिखराव ने बीजेपी की राह आसान कर दी।

अगर मुस्लिम और सेक्युलर वोट एक हो गए तो बीजेपी कोई सीट नहीं जीत पाएगी। नगर पालिका की कुछ ऐसी सीटें बीजेपी के खाते में भी गईं जहां मुस्लिम 70% हैं। मसलन बरेली जिले की बहेड़ी नगर पालिका में बीजेपी प्रत्याशी ने 11179 वोट पाकर जीत हासिल की। समाजवादी पार्टी की अंजुम रशीद को 8874 वोट, बहुजन समाज के नसीम अहमद को 6183 वोट, मजलिस के मुहम्मद शादाबको 4326 वोट, कांग्रेस के सलीम अख्तर को 2610 वोट और निर्दलीय प्रत्याशी सालिक कातिब को 4645 वोट मिले।

इसके अलावा कैंसिल वोट और डमी कैंडिडेट के वोट होंगे। यानी 26638 वोट होने के बाद भी बीजेपी प्रत्याशी महज बिखराव के चलते सफल हो गया। इतने नेता होने के बावजूद लोग कहते हैं कि मुसलमानों में नेतृत्व की कमी है। मुस्लिम जनता, हमारे राष्ट्रीय और सामाजिक संगठनों और विद्वानों के लिए यह डूब मरने वाली बात है कि हम पिछले 75 वर्षों में मुसलमानों को किसी भी मंच पर एकजुट नहीं कर सके।

हर मतदान में मतदाताओं को समुदाय और धर्म के आधार पर विभाजित देखा गया। उम्मीदवार का चरित्र उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखता है। एक बोतल शराब और पांच सौ या एक हजार रुपये के लिए बड़ी संख्या में अपना वोट बेचते हैं। इसका नुकसान यह है कि वह जीतने के बाद कोई काम नहीं करता है। क़ौम उन पर दबाव नहीं डालती क्योंकि उन्होंने उनका नमक खा लिया है।

दिलचस्प बात यह है कि वोट बेचने वाले ही ख़ुदा से ज़ालिम शासकों से बचाने की प्रार्थना करते हैं। यह भी देखा गया है कि बड़ी संख्या में वोट रद्द कर दिए जाते हैं। क्योंकि जिहालत के कारण ठीक से मुहर नहीं लगाई जाती है, एक जगह 24 हजार वोट पड़े और चौदह सौ वोट कैंसिल हो गए। उनमें से ज्यादातर मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए थे, एक हजार से ज्यादा वोट डमी उम्मीदवारों के लिए डाले गए। इस तरह 2400 वोट खराब हो गए। वहीं, बीजेपी की पार्टी महज 1200 वोटों से जीत गई।

यदि मतदाताओं को मतदान के लिए प्रशिक्षित किया जाता तो इस नुकसान से बचा जा सकता था। कितने मतदाताओं ने मोहर की जगह अंगूठा लगा दिया? हम संघ को बुरा कहते नहीं थकते, लेकिन संघ एक-एक वोटर को समझाता है। हमारे प्रत्याशी एक दूसरे की टांग खींचते रहते हैं, चाय व पकौड़े खिलाते रहते हैं, डराते-धमकाते रहते हैं या एक-दूसरे को खरीदते रहते हैं। वे अपने चुनाव चिन्ह का भी सही से पहचान नहीं करा पाते हैं। पहले वोटों का बिखराव और फिर कैंसिलेशन और डमी कैंडिडेट्स के पक्ष में वोटिंग जीत को भी हार में बदल देती है।

हम हज तीर्थयात्रियों के लिए प्रशिक्षण शिविर आयोजित करते हैं लेकिन वोटर को प्रशिक्षित करने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं चलाते हैं। जबकि हज के दौरान मक्का और मदीना में मुअल्लिम और गाइड उपलब्ध रहते हैं। बूथ पर रहते हुए सारा काम अकेले ही करना पड़ता है।

हर त्योहार पर अमन-चैन की अपील करने वाले सम्मानित विद्वानों की ओर से चुनाव के मौके पर कोई अपील जारी नहीं की जाती है। किसी मस्जिद में मतदान के महत्व पर भाषण नहीं दिया जाता है। ये सारे काम शरीअत के खिलाफ हैं या मुल्क के कानून के खिलाफ?

मैं समझता हूं कि हर चुनाव हमारे लिए एक परीक्षा है। चुनाव हमारे जीवन और हमारी पीढ़ियों के जीवन को प्रभावित करते हैं। इसलिए हम में से प्रत्येक को अपनी ज़िम्मेदारी निभानी चाहिए।

चौराहों, चौपालों और नुक्कड़ों पर बहस करने मात्र से चुनाव नहीं जीता जा सकता। पार्टियों को टिकट देते समय और उम्मीदवार को लेते समय अपना सामर्थ्य, जमीनी हकीकत के साथ-साथ इस पर भी विचार करना चाहिए कि उन के चुनाव में भाग लेने का देश और क़ौम पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

उम्मीदवारों के कार्यकर्ताओं को प्रचार अभियान के दौरान मतदान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। आज के डिजिटल युग में यह बहुत आसान है आप वीडियो बनाकर दिखा सकते हैं या वोटर्स के नंबर पर भेज सकते हैं।

क़ौम के उलेमाओं को भी अपने हुजरों से निकल कर मैदान में आना चाहिए और लोगों की ख़ुशी और नाराज़गी के बजाय अल्लाह की ख़ुशी और नाराज़गी का ख़्याल रखना चाहिए। रहमान के बन्दे मस्लेहत के नाम पर अपनी ज़ुबान को बंद रखते हैं और शैतानी ताकतें मैदान मर लेती हैं।

[नोट: उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एमसीएफ न्यूज़ इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]